शनिवार, 18 अप्रैल 2015

कमरे से दूर दिखने वाला पहाड़ अपने नीलाभ वस्त्र के ऊपर श्वेत बादल के टुकडे को ओढ़ लेता था .तभी तेज हवा जलन के मारे एक ही झटके में उसे सरका कर पहाड़ को चूम लेती . अथर्व अकेले में कई बार इस दृश्य को एक प्राकृतिक घटना मन कर भूल जाना चाहता था मगर जब कोई घटना बार बार होती है तो वह नियति बन जाती है .वह समझ चुका था की बादल की नियति हवा से हारने की है .

शैल के कमरे की बत्ती अब तक जल रही थी, मतलब कि वह जग रही थी .टेसू को सुला चुकने के बाद शैल के कमरे को निहारना उसका सबसे प्रिय काम था और जरूरी भी.शैल को अँधेरे से डर लगता है वही अँधेरा अथर्व के लिए वरदान है जिसे ओढ़ वह शैल के दुधिया उजाले में दूर से गोते लगाता रहता है . अथर्व के कमरे का अँधेरा शैल का आह्वान था कि ...हाँ ...टेसू सो चुकी है और मैं तुम्हारे पास हूँ ...दूर ही सही ....क्या तुम फुर्सत में हो ?

उधर शैलजा माथुर का स्वगत कथन... ये पाप नहीं तो क्या है ? एक विवाहिता स्त्री पराये मर्द के बारे में सोचे और उसके लिए दर्शनिये बनी रहे… अकेली है !..तो क्या हुआ...पति ने तलाक दे दिया ...तो भी क्या ...कोई तर्क इस पाप को पुण्य में नहीं बदल सकता .... तुम्हे सो जाना चाहिए ...नहीं ?

वैसे .यह तो रोज का जुमला था .तर्क वितर्क केवल अकेलेपन को दूर करने का उत्तम माध्यम है बाकि तो जो फिलवक्त अच्छा लगे वो ही सर्वोत्तम.हाथ तो मोबाईल की कीपेड को ऑन ऑफ़ करने की प्रक्रिया में व्यस्त था यह जानते हुए की उससे सन्देश आगमन में कोई रुकावट नही होती .

सो गई ?

पहला सन्देश अथर्व की ओर से ही होता है ...हमेशा... .हमेशा मतलब दो महीने के दरम्यान .

'कोशिश कर रही हूँ ..और तुम' ?

'कोशिश भी नहीं कर रहा ...'

'क्यों ..'?

'सोने से बहुत कुछ खो सकता है ..

जैसे ?

जो मैं अभी देख रहा हूँ ,अपने सामने ,तुम्हारे कमरे की दुधिया रौशनी .और तुम्हारे ...

सम टेक्सट मिसिंग ….

ओह ! ये क्या हुआ ..क्या लिखा होगा ...और तुम्हारे के बाद ....

उसके बाद वह सन्देश कई बार आया मगर टूटा फूटा ,कटा छंटा.हवा में बिखरे शब्द कही उड़ गए .शैल ने काफी इंतजार किया मगर फिर सन्देश नही आया .शायद अथर्व सो गया या टेसू को उसकी जरुरत होगी ..

शैल सबसे सुरक्षित अपने भीतरी खोल में ही महसूस करती है .निजी संवाद में जितनी प्रताड़ना हो व्यक्ति झेल लेता है .तमाम प्रश्नों के बही खाते के साथ केवल मैं .शैल का मकान बीचो बीच बसे एक मोहल्ले में स्थित था जहाँ सामने ही अथर्व का मकान भी .किताब के दोनों पन्नो की तरह ...आमने -सामने ...जुड़ा भी और अलग भी .फिर भी दोनों में आमने सामने शब्दों का संवाद नहीं हो पाता. लेकिन मोहल्ले वाले पाठकगण का बेहतर किरदार निभा रहे थे.

क्या सचमुच वह मेरी कहानी का अगला प्रसंग है .कोमा पर रुकी हुई जिन्दगी का पूर्णविराम .क्या हम दोनों को हाइफन की एक पुल जोड़ सकती है .शैल के ये सवाल निरुत्तर थे .इसलिए की जहाँ आत्मविश्वास की कमी होती है वहाँ या तो केवल सवाल होते हैं या नकारात्मक जवाब . इसलिए अंततः वह इसी निष्कर्ष पर पहुँचती है... मैं रिश्ता नहीं निभा सकती ….और वह याद करती है सोंधी मिटटी की वह सुगंध जो के प्रेम की पहली फुहार से उसके नासा पुटों में भर गई थी जिसने उन्मत किया था और उस फुहार को आत्मसात कर अपना बना लिया .फिर बरसा वेग के साथ पानी सारी मिटटी को बहा ले गई .उस वेग को सहने की क्षमता शैल में नहीं थी .अब रह गया केवल दलदल और उसमें दबी हुई वह ....

करीब पांच साल पहले अथर्व का विवाह हुआ था और चार साल पहले टेसू की माँ का निधन .टेसू जो अथर्व का सबकुछ थी और उसे विश्वास था की वह उसकी माँ की जगह भी पूरी जिम्मेदारी के साथ ले सकता है इसलिए दूसरी माँ की कोई जरुरत नहीं . समय के साथ टेसू ने समझौता कर लिया पर पापा मिसेज शैलजा माथुर के एकांत को अपने एकांत से जोड़ देने की आदम इच्छा पाल बैठे .

किताब के दोनों पृष्ट खुले हुए थे . मोहल्ले की पतियों वाली औरतें चिड़ियों के पर गिनने वाली निगाह से उनके सम्बन्धो की व्याख्या में लगी हुई थी .अब तो कई अवांतर कथाएं भी जुड़ने लगी थी . मिसेज शर्मा ने तो दोनों को पार्क में देखा था , जो की नीता जी के अनुसार पुरानी घटना थी .तो नया क्या था ...? क्या ...!!! उसके कमरे में ! सबने हाथों से मुह दबा लिया .....छिः बेशर्मी की हद होती है .इससे तो मोहल्ले का कल्चर ही ख़राब होगा और क्या ….वही सोचूं अकेले में इतनी मस्ती कहाँ से आती है .

अथर्व और शैलजा अलग अलग जगहों पर काम कर रहे थे लेकिन आवास एक ही मोहल्ले में था .अथर्व पहले से शैल 3 महीने से वहां थी ,जब से वह पति से अलग हुई थी .हलाकि की दोनों दो किनारों की तरह साथ चल रहे थे पर टेसू ने दोनों को करीब लाने में खासा योगदान दिया था .दोनों एक दुसरे को चाहत से ज्यादा जरूरतमंद लगे .रोज साथ आना जाना, एक ही हालात झेल रहे दो व्यक्तियों के करीब लाने में सहायक बना .

....जब तक वह साथ रहती है तब तक सब कितना अच्छा लगता है ,कितना मधुर .... इतने कम दिनों में हम एक दूसरे को काफी अच्छी तरह समझने लगे हैं ....मौका देख कर मुझे शैल से बात करनी चाहिए . अथर्व का ये नित राग उसके एकांत का एकालाप था जहाँ शैलजा माथुर शैल थी और वह उसका प्रिय..नहीं ...प्रियतम था .

उधर शैलजा माथुर ...लोग क्या कहेंगे ? ये सम्भव भी नहीं .कुछ भी सोचने से पहले मेरा अतीत प्रश्न बनकर मेरे सामने खड़ा हो जाता है . ....ये विमर्श भी दोनो को करीब आने से न रोक सके .पानी से लदा बादल कब तक अपना भार वहन करे ,अब तो वह उड़ भी नहीं सकता बस कहीं बरस जाना चाहता है .अपना अस्तित्व खोने का दुःख या मिटटी में मिल जाने का सुख ,इन दो विकल्पों के सिवा कुछ नही बचा .वरना आवारा बादल और अधर में रुकी उसकी जल - राशि .

अकेली तलाकशुदा औरत लोगों की निगाह में ऐसी हारी हुई बाजी होती है जिसपर अगला दांव लगाने की कोई हिम्मत नही कर पाता. और अन्य औरते अपने पति की नजर गुजर उतारती उससे दूर रहने की हिदायत देती हैं .मगर अथर्व अकेला है तो यहाँ निश्चिंतता के साथ एक मुद्दा भी है उनके लिए .अब मुहल्ले की चिंता भी तो उन्हें ही करनी है .मिसेज डिडवानिया उस मोहल्ले की वह संपन्न महिला हैं जिनके पास अथाह समय है और उनका खाली दिमाग हमेशा मोहल्ले की जवान लड़कियों और औरतों की निगरानी में लगा रहता है .शैलजा माथुर से उसकी कोई दुश्मनी नहीं ,दुश्मनी है उसके तलाकशुदा होने के बाद भी उसके खुश रहने से ,उसके जिन्दा होने से और सबसे ज्यादा उसके सौंदर्य से शैलजा की लावण्यमयी और कमनीय आभा के सामने डिडवानिया का मोटा थुलथुल शरीर ही उसके ईर्ष्या के मूल में था . उस दिन टेसू के बर्थ डे पर उन्होंने जो नोटिस किया वह और कोई कर सका क्या ..देखा नहीं किस तरह टेसू के बगल में माँ बनकर खड़ी थी और घर के काम काज ऐसे संभल रखा था जैसे वही मालकिन हो .हम भी तो थे वहाँ पर किसी ने पूछा नही !! इस तर्क पर सबका एकमत होना लाजमी था आखिर सबको अनदेखा किया गया था .

यह सब चल ही रहा था की उस दिन अचनाक अप्रत्याशित घटना घटी .शैलजा का पति उसके घर आ पहुंचा .वह ऑफिस जाने को तैयार हुई ही थी कि सामने वो .न ख़ुशी और न दुःख, केवल आश्चर्य.

तुम ??

पति ने जवाब में उसे बाँहों में भर लिया .शैलजा ने महसूस किया कि वो पश्चाताप और मोह की जकड़न थी जिससे छूटना किसी औरत के लिए बहुत मुश्किल होता है .दोनों मिनटो तक मौन यूँ हीं खड़े रहे ....

‘’मुझे माफ़ तो नहीं करोगी तुम ‘’? पति के इस विश्वास को सिरे से ख़ारिज करती शैलजा तलाक के वह पेपर ले आई जो अब तक उसके हस्ताक्षर के बिना पड़े थे .देखते ही सुलभ ठिठक सा गया .

‘'तुम ने अब तक साइन नहीं किया ....यानि तुम अब भी..? तुम कितनी महान हो शालू ...और दोनों हाथों से मुह ढांपे वह फफक पड़ा .

इधर काफी दिन बीत गए पर शैल की कोई आहट नही .उसके सामने वाली खिड़की लगभग बंद ही रहने लगी.टेसू के बहाने भी अथर्व कई बार शैलजा से मिलने की कोशिश की मगर सब बेकार .और उधर शैलजा जैसे हारी हुई बाजी जीत गई हो सुलभ का यूँ आना ,माफ़ी मांगना और उसके साथ पहले जैसे रहना ,बस यही सीमाएं रह गई थी उसकी ..इसमें अथर्व कहीं नही था .

नवंबर की धूप उतनी अच्छी नहीं लगती है जितनी जनवरी की ,हाँ नवम्बर की शाम बहुत गुलाबी होती है जिसमें लिपटे शैल और सुलभ गंगा के उस पार निकल आये थे .फ्लोटिंग रेस्त्रा की गहमा गहमी के बीच से निकल क रेत पर लेटे हुए दोनों .

'सच कहूं शालू ,तुम्हारे आने के बाद मुझे तुम्हारी अहमियत पता चली .'.मगर तुमने भी कभी कोशिश नही की लौटने की...क्यों ? सुलभ ने खाली अंतराल को पाटने की कोशिश की.

बस यूँ ही ..मुझे लगा यही मेरी नियति है. शैलजा ने आत्मसमर्पण का विकल्प चुना

कुछ देर की चुप्पी के बाद, ….'’मगर तुम क्या जानो की यहाँ तुम्हारे बिना मैंने कैसे कैसे दिन देखे '..बस दिन ही काट रही थी ..और कुछ नही .

अपने बारे में ऐसे आत्मीय शब्द सुन सुलभ की सुसुप्त पड़ी भावना जगने लगी और उसने शालू को बांहों में भींच लिया ..शालू ने भी रही सही कसर पूरी कर दी .दोनों शांत और निश्छल .दोनों की सांसों से खुले आकाश के बीच का वह स्थान गर्माहट का घेरा बनाने लगा .ठण्ड बढ़ने लगी मगर वहाँ एक अदृश्य आंच जलती हुई दोनों को तृप्त कर रही थी .

नवम्बर की मध्यरात्रि .ठण्ड तो लगती है और लग भी रही थी .अधखुले आँखों को खोलने की कोशिश करती हुई शैलजा बार बार एक ही बात दोहराती जा रही थी ….सुलभ ,अब मुझे छोड़ के मत जाओ ..दोबारा ..प्लीज़ ! पूरी कोशिश के बाद भी आँखें नही खुल पा रही है ..ये क्या हुआ मुझे …और मेरे होंठ क्यों सूखते जा रहे है … मुझे ठण्ड क्यों लग रही है ? सुलभ !..सुलभ ..!

सुलभ ने झकझोरा 'क्या हुआ शालू ? ….मैं बाथरूम में था और तुम यहाँ शोर मचा रही थी .

अब वह सचेत थी…तो यह सपना था  ! शैलजा झेंप गई कहा ‘’नही कुछ नही बस अजीब सा सपना आया था लेकिन थैंक गॉड की सपना था’’ .और वह सुलभ से लिपट गई .

आधार इतना प्यारा क्यों होता है और स्त्रियां आधार पाकर इतनी ख़ुशी क्यों महसूस करती हैं .अपने को पूर्ण होने का अहसास उन्हें किसी पुरुष के कंधें पर ही आता है और उनकी बांहों में सिमटकर ही वो अपने को सुरक्षित महसूस करती हैं .शैलजा ने यह साबित भी किया था .मगर यह आधार बदलता देख डिडवानिया को चैन नहीं था ...बड़ी नागिन है ये शैलजा माथुर .यहाँ सब से कहती फिर रही थी की पति ने छोड़ दिया और गैर मर्द के साथ मज़े मार रही थी .और अब देखो कहाँ से ये पति आग गया जिसके चक्कर कटती फिर रही है .कितने मर्दों को नाचना जानती है ये .हो न हो दोनों को धोखे में रख रही है . आखिर उसके पति को यहाँ की खबर देने वाला कोई तो होना चाहिए .

दिसम्बर की सुबह करीब सात बजे .आज शैलजा की छुट्टियां ख़त्म हुई थी .अलार्म के साथ ही आँखें खुल गई .अलसाई हुई आवाज में पुकारा -सुलभ !

...........!

सुलभ !

दोबारा निरुत्तर पाकर उसने बगल वाली जगह को टटोला जो खाली पड़ा था .शशंकित वह उठ बैठी .बिस्तर से उतर कर बाथरूम देखा जो खुला पड़ा था ,पीछे लॉन में देखा कोई नहीं ,किचेन में ,कोई नहीं .वापस कमरे में आई तो टेबल पर एक कागज का टुकड़ा मिला जिसमें लिखा था जल्द से जल्द तलाकनामे पर साइन कर के मेरे पते पर भेज देना .शैलजा ने दोनों हाथो से अपना सिर पकड़ लिया लगा जैसे एक भयानक स्वप्न से जागकर वह खड़ी हुई है .फलैश बैक में सुलभ के साथ बिताये ताजे लम्हे इस वारदात को झूठा साबित कर रहे थे .वह जहाँ खड़ी थी वहीँ बैठ गई ....लेकिन क्यों ?...सबकुछ तो ठीक हो चुका था ..सुलभ अचानक .....उसने फोन मिलाया ...जवाब में फोन काट दिया गया .शैलजा ने मेसेज किया क्यों सुलभ क्यों ? इस बार जवाब में फोन आया ...बिना कुछ सुने सुलभ ने बोलना शुरू किया .मेरे पीठ पीछे दूसरे मर्दों से सम्बन्ध हैं तुम्हारे और तुम ...छिः ..कल शाम डिडवानिया मिली थी तुम्हारा सारा अतीत मैंने जाना ,अब कहने को कुछ नही बस मैंने जो लिख छोड़ा है वह काम कर दो ..गुडबाय !

शैलजा के हाँथ पांव कांप रहे थे बिलकुल उस स्वप्न की तरह जो उस दिन उसने देखा था. जिस घाव पर समय का मरहम काम कर गया उसकी परत हटा सुलभ फिर से हरा कर गया ...इस दुःख को पूरी वफादारी से झेलने के बाद सुख की प्रतीक्षा इस तरह समाप्त होगी सोचा न था ...

इस सब के मध्य जिंदगी में दोबारा आने वाली ख़ुशी भी रोक दी गई थी .अथर्व नाम की ख़ुशी .इसे ख़ुशी ही कही जा सकती है शैलजा माथुर के लिए जो सहारे के साथ जीने वाले जीवन को ही जीवन मानती है ,जिसे अँधेरे से डर लगता है और किसी की आहट को ही रौशनी का पर्याय मानती है . आज सारे विकल्प जैसे सिमट के रह गए थे .बहुत दिनों बाद टेसू का ख्याल हो आया. शैलजा माथुर की देखने मिलने की इच्छा भी बलवती हो गई .अथर्व के घर के बाहर एक महंगी कार भी खड़ी देखी उसने .उधर बहुत दिनों से निगाह नही गई थी शायद जरुरत ही नहीं पड़ी .आज तय हुआ की ऑफिस से लौटने के साथ ही टेसू से मिलने जायेगी .अथर्व का फोन नंबर भी बदल चुका था .

शाम में कनिका निवास में ताला लगा हुआ था . वापस कमरे में आ बैग दीवाल में टांगा, जूते बालकनी में और मुह हाथ धोये बिना पीछे वाले कमरे में घुसकर बहुत दिनों से बंद पड़ी खिड़की को खोल दिया .सामने अथर्व की बंद खिड़की नज़र आ रही थी .

...... जिंदगी ऐसे मोड़ पर आ कर खड़ी हो गई है जहाँ धुंध ही धुंध है ...कोई रास्ता नजर नही आता .क्या सुलभ नही जिम्मेदार मेरी इस हालत का ? या उससे ज्यादा मैं ,या डिडवानिया... या किस्मत ! ! ! उसने सोचा . मुझे एक बार फिर सुलभ से बात करनी चाहिए और उसे अपनी वफादारी का विश्वास दिलाना चाहिए या फिर बीता हुआ सब भूल अथर्व के साथ डूबते हुए रिश्ते को बचाने की कोशिश करूँ !. हारी हुई हिम्मत ने फिर से दस्तक दी फिर से विकल्प चुनने की चाहत जगी . शैलजा के इस उधेड़बुन में रात हुई और फिर सुबह .पूरा दिन बीतने के बाद फिर रात .गाड़ी ले लेने के बाद अथर्व अब बस स्टॉप पर भी नही मिलता . शैलजा 9 बजे निकल जाती है तब उसका गेट बंद ही रहता है .इस बीच उसने कई बार सुलभ को फोन किया मगर कॉल रिजेक्ट की सुविधा ने उसकी असुविधा बढ़ा दी .

रात 12 बजे .शैलजा बंद आँखों और खुले दिमाग के साथ बिस्तर पर लेटी ही थी की अचानक किसी भय से आक्रांत हो झटके से उठ बैठी .कमरे के खालीपन ने सोचा न जाने क्या हुआ .

…अभी तो वह घर में ही होगा यह सोच सीधे अथर्व के घर की ओर बढ़ी ....बेल बजने पर अथर्व ने गेट खोला और शैलजा को देख ठिठक -सा गया ...तुम ?

'आं...हाँ ...वो मैं ...वह इतना ही बोल सकी थी की पीछे से एक आकृति उभरी ...कुछेक सेकेण्ड के बाद आकृति साफ होने पर एक महिला अपनी गाउन ठीक करती हुई जान पड़ी..कौन है डियर ?

अथर्व चौंका ...किवाड़ लगाते हुए उसने कहा पता नही कैसे बजा ...कोई भी तो नहीं है .

रॉस्कल ने नींद ख़राब कर दी ... अथर्व को ये कहते हुए शैलजा ने साफ सुना था! 

सोमवार, 22 नवंबर 2010

हड़ताल

जितनी तालाब में मछलियाँ नहीं थीं उतनी झाझी ने कंकड़ फेंक डाली होंगी। झाझी का दर्शन जब कुंलांचे भरने लगता तो वह इसी तालाब के किनारे पाया जाता था । मगर उस दिन वह कुछ थका हुआ सा भी था इसलिए सब से छिपकर एकांत की शरणली गई थी ।मन बहुत बीमार था । थोडी ही देर बाद कुछ लड़के उसे ढूंढते हुए वहाँ पहुँचे । उनमें से एक ने पीठ पर धौल जमाते हुए कहा – “ का मोर्चा नहीं संभालना है का? इस चोट से झाझी का मन खिन्न हो गया। वह पलट कर कुछ कहने ही वाला था की हर बार की तरह सहम कर चुप हो गया ।

यूनिवर्सिटी हड़ताल दो महीने से चल रही थी । छात्र संघों की गुटबंदी ने इसे हवा दी और सारे काम ठप्प पड़ गए । व्यक्तिगत लाभ की भावना ने तोड़ –फोड़ ,आगजनी ,पुतला दहन को ही शिक्षा का वर्तमान और भविष्य निर्धारित कर दिया था । पर झाझी इन सब से दूर रहना चाहता था । शहर माँ –बाबूजी के सपनों का आधार था , उम्मीदों का किला । इन सब से दूर रहने में ही सपनों के सच होने की संभावना निहित थी ।

डेढ़ साल पहले सीधा –सा लड़का शहर आया था । बड़ी मुश्किल से उसने खुद को ‘एडजस्ट ‘ कर पाया । शहर की भीड़ और अजनबीपन ने गाँव के प्रति पल रहे वर्षों के विभ्रम को तोड़ने में मदद की । झाझी के पिता रामदीन बेटे को शहर भेजने के पक्ष में नहीं थे लेकिन इंटर में ऐसा अव्वल आया की बूढ़ी आँखों में हीरे को तलाशने की चमक पैदा हुई । बेटे के जाने पर घर में क्या बचेगा फिर भी ममता के साये से उसके उज्ज्वल भविष्य को अंधकारमय बनाना उचित नहीं था ।

यूनिवर्सिटी के गेट पर पहुँचते ही भीड़ ने झाझी का स्वागत किया । थके-पिटे चेहरों के बीच आकाश हिला देने वाली आवाज गूंज रही थी ।ये दृश्य किसी भी इंकलाबी आंदोलन से कम नहीं था । ये खुद को घास कहते थे जिस पर किसी आँधी का प्रभाव नहीं पड़ता ।

वहीं दूसरी ओर थोड़ी दूरी पर हरे बैनर वालों की लम्बी लाइन लगी थी । दोनों गुट एक-दूसरे को खाने वाली निगाह से देख रहे थे । झाझी को किसी गुट के प्रति न सद्भावना थी न ही बैर । वह सालों से देखता आ रहा है की चार मौसम में एक हड़ताल का भी मौसम होता है । जब शिक्षा रूपी सीता बंदी बना ली जाती है । उसकी कैद-मुक्ती की आड़ में अंगद,सुग्रीव और हनुमान सरीखी पार्टियों की नसों में चुनावी साम्राज्य की ललक फुरकन पैदा करने लगती है। मगर यह सब को पता होता है की ये राम की ही लीला है।

लाल बैनर वाले सड़क पर निकल चुके थे। “छात्रसंघ जिंदाबाद”! का नारा शहर के शोर से तारतम्य मिला रहा था। हरे झंडे वाले शिक्षा की अराजकता की दुहाई दे रहे थे । प्रशासन की चेतावनी के बाद निकाला गया जुलूस में एक अलग तरह का तेवर और ,अवहेलना का भाव होता है । भीड़ में से एक लड़के ने झाझी को देख चुटकी ली -“का हो खाझी ,बड़ा सुस्त हैं ,सब ठीक त है न ! झाझी कमेन्ट समझ जाता है मगर जवाब देने नहीं आता । उस दिन झाझी को चक्कर आना ही था । गोलंबर चौराहा नापते हुए कुलपति आवास तक पहुंचते ही झाझी चक्कर खा कर गिर पड़ा । यह बात जुलूस की सफलता की निशानी थी इसलिए पानी नहीं देना था यह पहले ही तय हो गया था । पार्टी का उसूल था अग्नि में आहुती ज्वलनशीलता को बढ़ाती है ।

कुलपति जी के निकलने तक झाझी को बेहोश रखा गया । घंटों बाद भी कुलपती जी का कुछ पता नहीं ।उपद्रव शुरू होने की आशंका से सुरक्षाकर्मी द्वारा सख्ती बरती गई । युवाओं के गर्म दिमाग के साथ साथ खून भी औंटाने लगा। छात्रों और सुरक्षाकर्मियों के बीच जम कर हाथापाई हुई ।किसी का सर फूटा तो किसी के हाथ टूटे । व्यवस्था जैसे लंगड़ी हो चली थी। देखते-देखते सभी छात्र झाझी के समकक्ष आ गए । क्षण भर में पत्रकार और कैमरे में दृश्य की चोरी ने माहौल को अधिक सनसनीखेज बना दिया ।

दुनियाँ भले ‘ग्लोबल विलेज’ हो झाझी मोबाइल विहीन था। यह खबर गाँव भी कौन पहुँचाता यदि रिजु नही होता जो की अपने गाँव गया हुआ था। दो दिन बाद रिजु का आना हुआ । उसी की सेवा से झाझी फिर चल सका ।रिजु हफ्ते भर पहले दादा जी की बीमारी की खबर सुन घर गया था। जा के पता चला की चार दिनों से बिस्तर पर पड़े हैं और जान थी की छूटती नहीं थी। लोगों ने समझा पोते की आस लगी है। हुआ भी वही रिजु का स्पर्श पाते ही बूढ़ी आत्मा में जान आ गई। लेकिन होश में आते ही बूढ़े ने पानी पानी की रट लगा दी। किसी का फिर भी ध्यान नहीं गया ।दौड़ के सब गंगाजल लाए। बारी बारी से सबने दो दो बूंद होठों के बीच रखा। जल का होठों से संपर्क होते ही बूढ़े की चेतना लौटने लगी और पानी की स्पष्ट ध्वनि सुनाई पड़ी । रिजु दौड़ के पानी लाया। बाबा जी गए।

मानसून आ चला था औए नदियों की रवानी पूरे उफान पर थी । झाझी को माँ बापू की चिंता हुई । फोन किया तो पता चला की दोनों बहिनें आ के मिल गई थीं । बांध अब टूटा की तब। झाझी ने मन बना लिया की जो हो, जा के माई बाबू को लिवा लाएगा । लेकिन बिना अध्यक्ष की मर्जी के जाना संभव नहीं था। तो क्या हुआ जा के अध्यक्ष से वह मिल लेगा। यही सोचते हुए पूरी रात कटी । सुबह होते ही सहमता हुआ वह लाल कोठी के दरवाजे पर पहुंचा । माहौल से पता लगा शायद मीटिंग चल रही थी। ऐसे वातावरण में झाझी का दिल गेंद की तरह उछलने लगता है। मगर आज दिल कडा करना था । दालान में पहुँचते ही कुछ गुनगुनाहट सी लगी।और करीब पहुँचते ही अग्नि ,आहुती जैसे शब्द छिटक कर कानों से टकराए ।झाझी को देखते ही सभा में एक अजनबी चुप्पी चा गई। अमूमन ऐसा नही होता था ।अबतक झाझी ऐसे माहौल में गति लाने के काम आया करता था।झाझी की असहजता में इजाफा ही हुआ। झाझी पूछे बिना कुछ नही बोलेगा यह सोचते हुए अध्यक्ष ने ही पहल की।

“हाँ झाझी हमने ही तुम्हें बुलवाया है ,तुमसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं ।“

“लेकिन मुझे तो किसी ने .....”

“हाँ हाँ कोई बात नहीं थोड़ी देर ही सही आए तो। अध्यक्ष ने झाझी की बात काटते हुए कहा । झाझी के कंधेपर कुछ नरम सा महसूस हुआ। वो किसी का हाथ था दिलासा वाला नहीं,वो हाथ था जैसे बड़े युद्ध में जाने से पहले सांत्वना दी जा रही हो और ये पहले तय हो गया हो की वापस आना संभव नहीं।

“....देखो झाझी ! हरी झंडी वालों ने भूख हड़ताल की घोषणा की है । तुम तो जानते हो की यह हड़ताल खत्म करने का आखिरी हथियार होता है.....”

....यह क्या शुरू हो गया। मैं यहाँ किस काम के लिए आया था और....

अध्यक्ष का बोलना रुका नहीं ...हम चाहते हैं की हमारी तरफ से पहले ही कुछ ऐसा किया जाए की जीत का सेहरा हमारी पार्टी के सिर बंधे। ।“

“देखिये सर । हम तो आपसे यह पूछने आए थे की .....”

हाँ हाँ हम तुम्हारी परेशानी समझते हैं लेकिन डरने की जरूरत नही है, हमलोग हैं न!

“हम कुछ समझ नहीं रहे हैं आप क्या कह रहे हैं...हम तो आपसे जाने की अनुमति लेने आए हैं। झाझी की खीज ने एकसाथ सब कह डाला ।“

जाना है ! कहाँ जाना है ?कंधे से हाथ उतर कर पीछे बंध गए । अध्यक्ष के अजीब से बने चेहरे को देख झाझी की हिम्मत जाती रही।

“वैसे आप जो कह रहे हैं उसमे हम क्या कर सकते हैं सर? ”

नहीं ,तुम पहले अपनी बात पूरी करो । क्या कह रहे थे। अध्यक्ष को झाझी जैसे मोहरो के साथ व्यवहार करना बखूबी आता था।

अवसर मिलते ही झाझी ने सारी बातें कह डाली ।

इन बातों का जो प्रभाव अध्यक्ष पर पड़ा उसका झाझी का आभास तक नही होने दिया गया।

तो तुम्हें गाँव जाना है । ठीक ?

झाझी ‘हाँ’ में केवल सर ही हिला सका।

“अगर हम तुम्हारे माई बाबू को बुलवा लें तो कैसा रहेगा ? “

आप ?

हाँ....लेकिन बदले में तुम्हें भी हमारा एक काम करना पड़ेगा ।बोलो मंजूर?

“हम क्या कर सकते हैं बस हमें घर जाने दीजिये सर। “

बस ! बस करो ! अध्यक्ष की आवाज से लाल कोठी गूंज उठी और उतनी ही तेज झाझी का दिल गंगा की उफान से तालमेल बिठाने लगा। माथे पर पसीने की बूंद में माँ बाबू का चेहरा रह रह कर दमक जाता। सब इसी तरह जाने लगे तो आंदोलन का क्या होगा ,सोचा है किसी ने ! क्या यह सब मैं अपने लिए कर रहा हूँ ?...अपना क्या है सीट पक्का है राजनीति में ,मगर तुम लोग ऐसे ही सडोगे, अगर यही रवैया रहा तो...

झाझी फंस चुका था,अब निकलने के विफल प्रयास की आशंका से दिल बैठने लगा,माई बाबू....

“क्या करना होगा हमको ?” शायद समझौते में ही भलाई थी ।

अध्यक्ष भी थोड़ा नर्म हो चुके थे ,बोले,”काम थोड़ा मुश्किल है मगर तुम्हारे जैसा जिगर वाला ही कर सकता है ।“ थोड़ी देर की खामोशी के बाद अध्यक्ष ने झाझी के बिलकुल करीब आ कर कहा – ‘आत्मदाह’!

शब्द कानों में पड़ते ही झाझी के पैर काँपने लगे। हाथ जोड़ते हुए टूटी फूटी आवाज़में बड़बड़ाने लगा –“हमें जाने दीजिये ...छोड़ दीजिये हमें...हम अपने माँ बाप के एक ही आस हैं”...“हमें ....

आपे से बाहर होते देख अध्यक्ष ने स्थिति को संभाला-

“अरे ! अरे भाई आत्मदाह करना नहीं है ,बस नाटक करना है ,…..हमारे आदमी रहेंगे वहाँ तुमको बचाने के लिए । तुमको कुछ नहीं होगा।“ झाझी उस वक्त वहाँ से निकालने मेन ही भलाई समझते हुए दो दिन की मोहलत ले वहाँ से निकाला। रास्ते भर यह बात उसके कानों में गूँजती रही । कमरे पर जाना खतरे से खाली नहीं था । पूरी रात स्टेशन पर बिताने की सोची ताकि सुबह इंटरसिटी पकड़ कर गाँव पहुँच सके ।

गाँव के चूल्हे के पास बैठी माई …..अरे ! ये क्या माई रो रही है…..क्यों ? बापू कहाँ गए…….बाहर ओसारे पर ये कौन लुढ़का पड़ा है ? झाझी धीरे धीरे उस पोटली के पास पहुंचता है ,हाथ बढ़ा कर छूने की कोशिश करता है । ……बापू ! अरे ,ये तो बापू है । झाझी झकझोड़ कर बापू को उठाना चाहता है मगर उसका हाथ नहीं पहुँच पाता ,उसका दम घुटने लगता है……नींद खुलते ही उसे महसूस हुआ की उसके आँखों के सामने अंधेरा छा गया है ,लेकिन ये अंधेरा स्टेशन का नही । पूरी बेहोशी आने तक वह इतना समझ चुका था की ये पार्टी के आदमी थे । दो लड़कों ने उसे उठा कर गाड़ी में बिठाया । थोड़ी देर बाद जब झाझी को होश आया तो महसूस हुआ की उसके हाथ पाँव बंधे थे। मुंह पर टेप और आँखों में पट्टी बंधी थी । झाझी काफी देर तक छूटने का असफल प्रयास करता रहा। गाड़ी कुलपति आवास के सामने रोक दी गई । दोनों लड़कों ने उठा कर उसे कुलपति आवास के सामने खड़ा किया । कुछ लड़के वहाँ पहले से मौजूद थे ।उनमें से एक ने किरोसिन डाला और दूसरे ने माचिस जलाई । देखते –देखते आग की लपट आसमान छूने लगी । इतने में सुरक्षाकर्मी आ पहुंचे मगर तब तक लड़के भाग चुके थे।

दूसरे दिन झाझी के कमरे की तलाशी ली गई । एक चिट्ठी मिली जिसमें लिखा था –“मैं हड़ताल के विरोध आत्मदाह कर रहा हूँ ताकि हड़ताल टूट जाए और मेरे तमाम साथियों का भविष्य खराब न हो । “नीचे नोट में लिखा था –‘ मैं लाल झंडी पार्टी का सदस्य हूँ ‘।

दूसरे दिन अखबार में इस चिट्ठी के साथ मोटे अक्षर में खबर छपी – हड़ताल के विरोध में एक छात्र का आत्मदाह !

अब हड़ताल टूट जाएगी ऐसा सबको विश्वास था